चूल्हा और धुंआ

चूल्हा और धुंआ का ज़िक्र आते ही हमारे ख्यालात में एक झोपडी और उसके आँगन में बने चूल्हे को फूँक मारती बूढी महिला की तस्वीरें आती हैं! चूल्हा जलना घर में ख़ुशी का प्रतीक था, जिनके घर सुबह कमाकर शाम को लाये दाने की वजह से आबाद थे, उनके घर में चूल्हा जलना उनके जिंदा रहने का प्रतीक और सुबूत हुआ करता था! चूल्हा शहरों से गायब हुआ, फिर कस्बों से गायब हुआ और अब गाँव से भी गायब हो रहा है | क्या चूल्हा धुंआ बनकर उड़ गया है| या लकड़ी का आखिरी हिस्सा जल जलकर उसे ख़त्म होने की ओर ले जा रहा है| भट्टियाँ भी अब गैस से जलने लगी हैं| पर गाँव का चूल्हा कुछ और ही था, चूल्हे की अंगारों में सिकी हुई रोटियां हों या फिर उस पर बना हुआ खाना, दोनों का मज़ा ही कुछ और था| चूल्हे का बना खाना कभी कच्चा नहीं रहता, उस खाने में एक अलग ही देसी टेस्ट होता है जो जुबां के जायके को देसी बनाने में कोई कसार बाकी नही रखता|
चूल्हे से निकलने वाला धुंआ, भी एक देसीपन का एहसास करता है | ठण्ड के दिनों में कहीं अलाव जलाए जाते हैं, तो चूल्हे से ही काम चला लिया जाता है | चूल्हे और उसके धुएं की एक अलग ही महता है, चूल्हे में बनने वाली रोटी महिलाओं को सहनशील बनाने में मदद करती है|चूल्हे के लिए लकड़ी इकठ्ठा करने वाले युवक को कर्तव्यनिष्ठ बनाती है| आखिर चूल्हे के फायदे अपनी जगह हैं,पर उसका अपनापन भी एक अलग ही मिठास पैदा करता है | कभी आपने चूल्हा जलाने की कोशिश की, शायद नहीं ?
आखिर आप कर भी कैसे सकते हैं, एक बार तो लौ को फूँक कर देखिये, फिर जब चूल्हा जलेगा तो आप महसूस करेंगे, जैस आपने कोई जंग जीत ली हो ! चूल्हा गाँव और देश की पहचान है , संघर्ष का प्रतीक है |

Comments